(अखिलेश की कहानी 'ऊसर' पर एकाग्र)
सन् 1909 ई. में गांधीजी ने अपने हिंद-स्वराज में इंग्लैंड में चल रहे लोकतांत्रिक प्रणाली पर तरस खाते हुए लिखा था - "जिसे आप पार्लियामेंटों की माता कहते हैं
वह तो बाँझ और बेसवा है।" बहुत सालों बाद भी गांधी यह कहते रहे कि "मैं आज भी उस किताब के एक भी शब्द नहीं बदलना चाहता सिवाय एक शब्द के (जिसे अँग्रेजी अनुवाद
की प्रस्तावना में भी उन्होंने लिखा) यदि इसमें मुझे कुछ भी सुधार करना हो, तो मैं एक शब्द सुधारना चाहूँगा। एक अंग्रेज महिला मित्र को मैंने वह शब्द बदलने का
वचन दिया है। पार्लियामेंट को मैंने वेश्या कहा है।" पता नहीं बाद में इस शब्द का कोई विकल्प उन्होंने कुछ सोचा कि नहीं लेकिन आपातकाल के बाद भारतीय राजनैतिक
परिदृश्य पर अखिलेश की कहानी 'ऊसर' उस शब्द के विकल्प के साथ राजनीतिक ढाँचे पर तरस खिलाती है।
ऊसर ऐसे लड़के (चंद्रप्रकाश) की कहानी है जो अपना कॅरियर राजनीति में बनाना चाहता है। "वह मंत्री होना चाहता है। मुख्यमंत्री होना चाहता है। शुरू-शुरू में तो
प्रधानमंत्री भी होना चाहता था।" लेकिन यह सब होने की सबसे अनिवार्य आवश्यकता जो उसके दिमाग में बैठी थी वह यह कि "चंद्रप्रकाश लटकन नहीं बनना चाहता, महिंद्रा
एंड महिंद्रा जीप खरीदना चाहता है और टॅक्सी स्टैंड का ठेका पाना चाहता है।" चंद्रप्रकाश का घर रोजमर्रा की चीजों की बहुत छोटी सी दुकान से चलता है जिसे उसकी
माँ चलाती है। उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी और चंद्रप्रकाश की माँ अपनी एक जवान बेटी की शादी से ज्यादा चंद्रप्रकाश के बारे में चिंतित रहती थी। चंद्रप्रकाश
इंटरमीडिएट का इम्तहान दे चुके थे। कहानी का जो केंद्रीय 'स्पेस' है वह शहर का बस अड्डा है। यही वह स्कूल है जहाँ शहर के सभी राजनीति के प्रशिक्षु और राजनैतिज्ञ
जमा होते हैं, बहस चलती है, सूचना का आदान प्रदान होता है। चंद्रप्रकाश का भी पूरा समय यहीं बीतता है। "माँ ने पिछले कुछ सालों से सूरज की रोशनी में बेटे का
चेहरा नहीं देखा था।" इसी स्पेस में कहानी अपने सामाजिक और राजनैतिक स्वरूप को ग्रहण करती है। एक दिन चंद्रप्रकाश को पता चलता है कि पार्टी हाईकमान के सलाहकार
शहर में हैं। यही वह रास्ता हो सकता था जो चंद्रप्रकाश को लटकन होने से बचा सकता था पर वो कहाँ मिलेंगे इसका पक्का पता उसे उसके अथक परिश्रम से भी नहीं चल पाता
है और घोर निराशा से उसमें पवित्र संवेदना व मोहभंग की स्थिति पैदा होती है। थक कर वह इंजीनयरिंग कॉलेज के हॉस्टल पहुँचता है जहाँ लड़के ब्लू फिल्म और शराब का
आयोजन कर रहे थे। अपने परिचित छात्रों से इतना आदर पाकर उसे पुनः राजनीति में होने की आत्ममुग्धता होती है। उस रात वह नशे में इतना धुत्त हो जाता है कि अपने घर
भी नहीं जा पाता। "उसे लगता, कमरे में अँधेरा हो गया है। कभी लगता, तेज उजियारा फैल गया है। उसे महसूस हुआ वह अपने घर में है। सिरहाने माँ आकर खड़ी हो गई है और
माँ के आँसू उसके गाल पर चू पड़े हैं। उसने आँसू पोंछने के लिया गाल पर हाथ फेरा। वहाँ बल्ब के पास मंडराने वाला बदबूदार कीड़ा था, वह उड़ गया।"
'ऊसर' अखिलेश की अन्य कहानियों के मुकाबले चर्चा में कम आई। इस कहानी की खासियत यह रही कि यह वर्तमान भारतीय राजनीति और प्रारंभिक आदर्शवादी राजनीति के बीच
प्रतिमानों में आए बदलावों की खाईं पर सेतु बनाती है। अखिलेश जिस पीढ़ी के कहानीकार हैं उनमें यथार्थ के बहुस्तरीयता का चित्रण, जो स्वयं उनमें भी दिखाई पड़ता है,
शिल्प और भाषाई दोनों स्तरों पर होता है। इस मुकाबले यह कहानी एकरेखीय ज्यादा लगती है किंतु यह कहानी ही उस समय की है जब यह यथार्थ राजनीतिक और सामाजिकता के
संयुक्त प्रवाह से बदल रहा था। प्रतिमानों के बदलाव से समाज और सत्ता के अंतरसंबंधों में बदलाव आता है। कहानी राजनीति में 'लुंपेनिज्म' के हावी होने, उसके
समाजशास्त्र को बताती है साथ ही युवाओं के राजनीति में हिस्सेदारी के नए व्याकरण को व्याख्यायित करती है। दरअसल यह कहानी भारतीय राजनीति में आए उस परिवर्तन को
भी सूचित करती है जिसने हर उस मूलभूत प्रतिज्ञाओं को बदल कर रख दिया जिससे कोई राज्य अपने को राष्ट्र बनाने के लिए वचनबद्ध रहता है। नक्सलवादी और छात्र आंदोलन
के क्रूरतापूर्वक कुचले जाने, आपातकाल से उपजे संदेह और भय ने राजनीति के प्रशिक्षण केंद्र विश्वविद्यालय और ट्रेड यूनियन से निकाल कर ऐसे सार्वजनिक स्थान को कर
दिया था जो केवल स्वतंत्र लगता था लेकिन उसका ठेका सरकार और राजनैतिक वर्चस्व का मामला होता। चंद्रप्रकाश भी अपने सपने को ऐसे ही प्रशिक्षण केंद्र और रास्ते से
पूरा करना चाहता था, जहाँ वह पूरी ईमानदारी के साथ अपना सारा वक्त देता था। राजनैतिक ट्रेनिंग के केंद्र शैक्षणिक संस्थानों से निकाल कर व्यावसायिक चौराहे पर
आने से सामाजिक बदलाओं को शायद ही अब तक कोई समाजशास्त्र दर्ज करता है। कहानी में 'बस अड्डा इस कसबाई शहर का महत्वपूर्ण केंद्र है। यहाँ यात्री से ज्यादा नेता
दिखाई देते हैं।' इस पृष्टभूमि पर बहुत सारी कहानियाँ और फिल्में बन चुकी है। पहली नजर में कहानी का तेवर यथार्थवादी सा दिखता है लेकिन कहानी में जो मुख्य अंतर
है वह यथार्थवाद से भिन्न है। आमतौर पर यथार्थवादी उपन्यासों में जो राजनैतिक किरदार नजर आते हैं सामाजिक-आर्थिक स्थिति लगभग चंद्रप्रकाश सी हू-ब-हू होती है और
भावनाओं से ओत-प्रोत भी लेकिन अखिलेश के यहाँ मार्मिकता कम होते हुए, थोड़े खिलंदड़ अंदाज में आत्म-व्यंग्यात्मक हो जाती है - "वह मुँह अँधेरे मुर्गा की तरह उठता
और नहा-धो कर कलफ लगा कड़कड़ाता कुर्ता-पाजामा पहन कर निकल जाता और देर रात लौटता"। यथार्थवाद और समकालीनता के वयःसंधि में चंद्रप्रकाश की परिस्थितियाँ तो वही
हैं परंतु उसके पास न वो अवसर का 'लोकेल' है न ही वो सामाजिक मूल्य जो आमतौर पर यथार्थवादी उपन्यासों में होता है। चंद्रप्रकाश नेता होना तो चाहता है लेकिन वह
इंटरमीडिएट का इम्तहान देने के बावजूद विश्वविद्यालय में नहीं बल्कि बस अड्डे के जरिए इंजीनियरिंग कॉलेज में अपना सिक्का चला ले जाता है। यह चंद्रप्रकाश की
काबिलियत का परिणाम नहीं था, उस ऐतिहासिक नियति का हास्यास्पद परिणाम था जिसमें समाज अपने राजनैतिक नेतृत्व को चुनने में भयभीत और संदिग्ध रहता है और अपनी
शिक्षा से फेल फिर भी तकनीकी रूप से दक्ष हो रहे मानव संसाधन पर अपना वर्चस्व स्थापित करता है। यह ऐसी वैश्विक परिघटना थी जिसका उल्लेख प्रख्यात इतिहासकार
हॉब्सबॉम 'एज ऑफ एक्सट्रीम' में करते हुए आश्चर्य व्यक्त करते है कि अगर फिडेल कास्त्रो और राजीव गांधी को अपवाद माना जाय तो फिर आखिर क्या वजह थी की 80 के दशक
तक पूरी दुनिया में कोई भी युवा सत्ता पर काबिज नहीं हो सका। इसके पीछे जो भी संरचनात्मक कारण हो परंतु हॉब्सबॉम बताते हैं कि यही वह समय है जब विज्ञान और तकनीक
के सारे आविष्कार और इस्तेमाल युवा पीढ़ी के सबसे कम उम्र के लोग कर रहे थे।
बस अड्डा का राजनैतिक केंद्र बनना बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन है। यह परिवर्तन राजनीति और सत्ता के संस्थानों के ऊसर हो जाने की कहानी तो कहता ही है साथ ही
'पब्लिक स्फियर' के व्यवसायीकरण के परिणामों को भी दर्शाता है। हिंदी साहित्यालोचन में हेबरमास के 'पब्लिक स्फियर' की काफी चर्चा हो चुकी है बल्कि इस पदावली के
केवल अनुवाद पर काफी बहस हो चुकी है। हेबरमास की 'द स्ट्रक्चरल ट्रान्स्फ़ोर्मेशन ऑफ पब्लिक स्फियर : एन एन्क्वायरी इंटू कटेगरी ऑफ बुर्जयॉजी सोसाइटी' नामक
पुस्तक से यह अवधारणा हमारे बीच आई लेकिन हेबरमास की 'एन्क्वायरी' रोमन साम्राज्य, उपनिवेशवाद से शुरू होकर राज्य द्वारा 'पब्लिक स्फियर' की स्वायत्ता पर पूरी
तरह काबिज होने तक की है। यह विज्ञान और तकनीक के साथ गठबंधन करती नव-साम्राज्यवादी प्रभावों पर ज्यादा समाधान प्रस्तुत नहीं कर पाती। यह भी सच है कि हाल के
भारत दौरे पर आए विद्वान होमी के. भाभा ने उसी अवधारणा को माना लेकिन आभासी समाज में 'पब्लिक स्फियर' की बात कही।
ऊसर के बारे में लिखते हुए ('ऐसे लड़के (चंद्रप्रकाश) की कहानी है') यह लिखा जाना उचित होगा की यह कहानी एक माँ और राज्य के अंतरसंबंधों की भी कहानी है लेकिन
दोनों ही बहुत सामने कभी नहीं आते। ऐसे में एक युवा जो आधुनिक शिक्षा पद्धति में अपने को दौड़ा पाने में सक्षम नहीं पाता किंतु राजनीति की महत्वाकांक्षा रखता है
उत्तरदायित्व और ईमानदार बने रहने की कशमकश में लंपट व्यक्तित्व में विघटित हो जाता है। निश्चित रूप से यहाँ सत्ता और व्यक्ति के बीच कुछ ऐसा परिवर्तन होता है
जिसमें चंद्रप्रकाश हर चौक-चौराहे पर खड़े मिलते हैं और इस बेहिसाब फसल के मालिक विधान सभाओं और पार्लियामेंट में। बस अड्डे जैसे पब्लिक स्फियर के परिवर्तन ने
केंद्रीय और एक रेखीय यथार्थ को बहुस्तरीय बना रहा था। इस बहुरूपीय सत्य के समाज में साहित्यालोचन और समाजशास्त्र का ऐसा विलगाव पैदा होता है कि वह अपने ही
बहुरूपीय सत्य में खो कर रह जाता है। ऊसर पब्लिक स्फियर में आए ऐसे ही छोटे से बदलाव के परिणाम को प्रकट करते हुए पूरे समाजशास्त्र को बताता है। तमाम तीसरी
दुनिया में साहित्यालोचन और सर्जनात्मक लेखन के बीच सामाजिक संदर्भ की खाईं अपनी सांस्कृतिक गतिकी को नजरअंदाज करने की वजह से पैदा हुई लगती है। हेबरमास खुद
अपने इस प्रारंभिक अवधारणा के बाद जिस संवादपरक क्रिया के सिद्धांत की तरफ बढ़ते हैं जो स्वयं व्यवस्था की खाई और अजनबियत को पाट तो सकता है किंतु वैविध्यपूर्ण
सामाजिकी को नष्ट भी करता है। ऐसे वैश्विक संसार में परंपरा को विस्थापित कर आई आधुनिकता अपने ही संदर्भ अनुपलब्ध हो जाती है। "ऐसी व्यवस्था में कोई कार्य या
वस्तु तभी 'रेशनल' होता है जब वह मनुष्यों द्वारा नियंत्रित हो और आलोचनात्मक समीक्षा के लिए तैयार हो और पुनः आलोचनात्मक समीक्षा 'कारणों (reason)' से समर्थित
हो।" जबकि हेबरमास के एन्क्वायरी की बढ़त इस तरह के आधुनिकता के परियोजना की आस्तिकता को प्रकट करता है और यह कहानी ऐसी परिस्थितियों से बहुत दूर पहुँच चुके
सामाजिक यथार्थ का बयान है। चंद्रप्रकाश जिस व्यवस्था में है वह कारण समर्थित न होते हुए प्रतीकात्मक मूल्यों की व्यवस्था ज्यादा है। चाहे वह द्वितीय विश्वयुद्ध
में शोहरत कमा चुकी जर्मन विल्लि महिंद्रा एंड महिंद्रा जीप हो, राजदूत मोटरसाइकल हो, बस अड्डे का ठेका हो, चमकदार कुर्ता-पायजामा हो या फिर माया पत्रिका ही हो,
सब के सब तर्कसंगत व्यवस्था से संचालित नहीं बल्कि अपने ही प्रतीकों की व्यवस्था रचते हैं। चंद्रप्रकाश लोकतांत्रिक से दिखने वाले पब्लिक स्फियर तक तो पहुँच बना
सकता है लेकिन वह इस प्रतीकात्मक व्यवस्था में सेंध नहीं लगा सकता। यहाँ तक की ठेकेदारी भी इन्हीं प्रतीकात्मक मूल्यों की धौंस से चलती है - "बिना मोटरसाइकल के
कहीं ठेकेदारी का रोब जमता है।"
ऐसे ऊसर समाज में चंद्रप्रकाश जैसे युवा की मानवीय संवेदना "धोबी के कुत्ते" में विघटित होकर रह जाती है। चंद्रप्रकाश की दुविधा दो क्षेत्र से टकराती है पहला
पारिवारिक और दूसरा राजनीतिक कॅरियर। पारिवारिक क्षेत्र की स्थिति के "कई मौकों पर चंद्रप्रकाश ने सोचा कि किसी भी तरह पैसा कमाया जाए। चाहे चोरी-डाका क्यों न
करना पड़े।" इसके विपरीत पैसे की ऐसी तंगी में अपने राजनैतिक क्षेत्र में वह कहता - "उसे पैसों की कमी नहीं है। ठेकेदारी में बहुत पैसा है और वह बहुत पैसा कमा
चुका है। चाहे तो लाखों पीट दे लेकिन पैसों का उसे लोभ नहीं। वह बस इतना कमाना चाहता था कि राजनीति का काम ठीक ढंग से चल सके।" ऐसे ही विखंडित मूल्यों में
चंद्रप्रकाश का व्यक्तित्व खड़ा होता है - पहला, तात्कालिक और दूसरा भावी। अखिलेश की यह विशेषता भी रही है कि वह कहानी की पूरी पारिस्थितिकी अपने शुरुआती पंक्ति
से गढ़ देते हैं। जैसे - उसकी इच्छा थी, कोई ऐसा दोस्त मिले जो एक बड़ा सा मीठा तरबूज खरीद सके और उस तरबूज को दोनों मिलकर कर खाएँ। और भावी में तो वह
प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री आदि आदि होना चाहता था। विखंडित मूल्यों का द्वंद्व चंद्रप्रकाश के व्यक्तित्व में हमेशा चलता रहता है। इस द्वंद्व की समाप्ति काफी
त्रासद होती है जब चंद्रप्रकाश को अपने लंपट राजनैतिक प्रयासों पर पश्चात्ताप होता है और वह बेहद निश्छल और पवित्र संवेदनशील हो जाता है। ऐसे में वह इंजीनीयरिंग
कॉलेज के हॉस्टल में शराब के साथ ब्लू फिल्म देखता रहा। नशे में धुत्त उस रात वह घर नहीं जाता। उस रात माँ के आँसू की जगह उसके गाल पर बल्ब के पास मंडराने वाले
बदबूदार कीड़े ने ले ली पर अब वह ऐसे नशे में था कि यही उसे ममतामयी माँ के आँसू लगे। कहानी यथार्थ के ऐसे चौखटे में प्रस्तुत है कि शुरुआत में माँ का रात में
बेटे के सिरहाने आकर आँसू टपकाना काफी सिनेमाई और अतिभावुकता लगे लेकिन कहानी के अंत से इस भावुकता का समाधान और निष्पत्ति भी वही हो जाती है जो अखिलेश कठोर
यथार्थ दिखाने के लिए करते रहे हैं।